भगतसिंग, सुखदेव और राजगुरु - इन तीन नामों के बगैर भारत की स्वतंत्रता का इतिहास शायद
अधूरा है. ब्रिटीश राज के खिलाफ उनकी लड़ाई और प्राणों का बलिदान उनको मानो अमर
कर गया है.
ये तो हम जानते ही है के कैसे आक्रोश मचा था पूरे भारत में उनकी सज़ा को सुनकर, लाहोर में तो
विद्रोह के आसार नज़र आ रहे थे जहाँ की कोट लखपत जेल में उन को बंदी बनाके रखा था,
जिसके चलते एक दिन पहले ही उनको फाँसी दी गयी.
और फिर बताया गया के रात के अंधकार में उनके अंतिम संस्कार भी कर दिए एक नदी के किनारे, परीजनों और दोस्तों को बिन पूछे, बिनबताए.
अगर पार्थिव को बिना क्रियाकर्म आग के हवाले के करना और फिर लोगो के डर के मारे उसको
नदी में बहाँ देना, शायद बरतानवी भाषामें इस को अंतिम संस्कार कहते होंगे, हम तो इसे
विटंबना ही मानेंगे. यह बात अलग है के शहीद किसी संस्कार के मोहताज नहीं, वो तो संस्कारो की धरोहर छोड़ जाते है.
तो यह अंतिम संस्कार जहाँ किए गये वो जगह है हुस्सैनीवाला, सतलज नदी के किनारे. ज़्यादातर लोग
मान के चलते है के जब फाँसी हुई थी लाहौर में तो यह स्थल भी वही कहीं आसपास होगा, यानी आज के पाकिस्तान में. और था भी. पार्टीशन के दौरान हुस्सैनीवाला पाकिस्तान के हिस्से में ही आया था.
कुछ सालों बाद भारत सरकार ने पाकिस्तान से एक आदान प्रदान किया जिसके चलते फाज़िल्का
जिले के १२ गाँव पाकिस्तान को दिए गये और इस जगह का ऐतिहासिक महत्व जान कर
इसे भारत में शामिल किया गया. १९५१ में तत्कालीन संरक्षण मंत्री श्री. वाय. बी. चव्हान ने फिर नींव रक्खी समाधीस्थल की.
एक अलग ही एहसास है यह जगह मानो जैसे भगतसिंग, राजगुरु और सुखदेव की रूह कह रही है
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे
जब अपनी जमी होगी और अपना आसमाँ होगा
स्वतंत्रता संग्राम में भगतसिंग के एक साथी थे श्री. बटूकएश्वर दत्त. भगतसिंग की फाँसी के दौरान
वो क़ैद की सज़ा काट रहे थे. १९६१ में आप का निधन जब दिल्ली में हुआ तो आप की इच्छा थी
अपने साथियों के निकट चिरशांति लेने की. उनका अंतिम संस्कार भी यही पे किया गया,
अतः समाधी भी बनाई गयी.
आश्चर्य की बात तो यह है के जब की औफ़ीशियल आदान प्रदान में हुस्सैनीवाला भारत में शामिल
किया गया था फिर भी बार बार होते रहें यहाँ पे आक्रमण. आज भी आप देख सकते है तोप गोलों
के निशान कैसर-ए-हिंद टॉवर पर. जो आधा ही सही लेकिन खड़ा है सीना तान के. और जो गवाही
देता है अपने सैनिकों के बुलंद इरादों की और अतुलनीय शौर्य की. १९५६ मे ४ जे ए के रायफ़ल्स,
१९६५ में सेकंड मराठा लाइट इन्फट्री, १९७१ में १५ पंजाब डी कंपनी फोर हुस्सैनीवाला अपनी जान
पर खेल गये थे इसके संरक्षण में. १९७१ में समाधी स्थल पे ही हुई थी घमासान लड़ाई जिस में
शहीद हुए थे २ अफ़सर और ५३ सैनिक. लेकिन जूझते रहे जब तक उपर से कहा कहा नही गया
पोस्ट खाली करने को. बमबारी से पूरी तरह से समाधी को तहस नहस कर दिया गया था तब.
१९७३ में पुनर्निर्माण किया गया और आज कल इसे कहा जाता है प्रेरणास्थल.
समाधी स्थल जाने का रास्ता एक पुल से हो कर जाता है जिसकी एक तरफ पूरी कवर की गयी है
लोहे के १५-२० फीट उँचे शीट लगाकर. थोड़ा अजीब ही लगा देखते हुए. शहर का आदतन मन तो
कह गया इस वीराने मे काहे के साउंड बॅरियर, यहा पे कौन सी होती है ट्रॅफिक? फिर पता चला
अरे उस तरफ तो पाकिस्तान है.
हुस्सैनीवाला जो कभी पाकिस्तान का हिस्सा बन चुका था, आज एक बॉर्डर पोस्ट है. हालाँकी यहा
से बॉर्डर क्रॉसिंग अब बंद कर दी गयी है, यहाँ पे रोज़ फ्लॅग रिट्रीट सेरेमनी होती है. दोनो तरफ़
गर्मजोशी से नारे लगते है अपने अपने देश के लिए, जैसे लगते है वाघा बॉर्डर पर. लेकिन
हुस्सैनीवाला की हवाओमें इस तरफ एक और नारा गूँजता है "इन्क़िलाब ज़िंदाबाद" और मन खट्टा हो
जाता है के यह नारा उस तरफ़ क्यों नही लगता? आख़िर यह नारा तो दोनों के इतिहास का हिस्सा
है. खैर…
आप लोग अमृतसर जाते होंगे, वाघा बॉर्डर जाते होंगे. अमृतसर से सिर्फ़ २.५-३ घंटे की दूरी पे
फ़िरोजपूर जिले में स्थित है हुस्सैनीवाला. यह है उत्तर रेलवे का आख़िरी छोर, जहा साल में एक बार
२३ मार्च को ट्रेन चलती है, शहीदों की स्मृति में.
कभी अमृतसर की तरफ जा रहे हो तो इस तरफ भी मूड़ जाइएगा. शीश झुकाने के लिए ना सही
तो शहीदों को बताने के लिए ही सही, के उनका सपना "आझाद भारत" का, जो आज हम जी रहे